Saturday, January 4, 2014

आम आदमी पार्टी (आप) : चित भी मेरी पट भी मेरी


अरविंद केजरीवाल अब दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके है ! विश्वास मत जीतने से पहले अपनी सादगी की वजह से चर्चा मे रह चुके केजरीवाल ने पहले तो एक आलिशान मकान अपने निवासस्थान के रूप मे  पसंद किया था ऐसी खबरें थी । लेकिन इन खबरों पर बवाल उठने के बाद उन्होंने इस बडे घर को वापस कर दिया ।  हम सब जानते है कि केजरीवाल का यहांतक का सफर एक आंदोलन से शुरू हुआ जिसे अण्णाजी के आंदोलन के नाम से जाना जाता है !

जब अण्णाजी का आंदोलन चल रहा था तो उसके समर्थन मे जो लोग मुहीम चला रहे थे उन्हें मै अच्छी तरह जानता था । ये लोग तो भाजपा और संघपरिवार के समर्थक लोग थे । अण्णाजी के आंदोलन को सोशल मेडीया पर इन्ही लोगों ने हवा दी थी । अगर आप खुद के मेल बॉक्स खोल कर देखें,  तो  ये बात सिद्ध हो जायेगी । रामलीला पर कानून बनाने के लिये सरकार को घिरने के लिये, या यूं कहिये कि, ब्लॅकमेल करने के लिये उपोषण का हथियार इस्तेमाल करने की जरूरत थी । इस्को तो  सिर्फ अण्णाजी चला सकते थे । अण्णा माहीर थे इस खेल मे । इसलि‌ए एक रात मे अण्णाजी को मसीहा बना दिया गया ।

इस आंदोलन के पहले  अण्णाजी भी महाराष्ट्र मे बिल्कुल अकेले पड गये थे । महाराष्ट्र के बाहर उन्हें शायद ही कोई जानता था । महाराष्ट्र मे उन्होंने ११ बार अनशन किया था जिसमे ९ बार उनकी मांगे मंजूर की गयी थी । मंत्रीयों को इस्तिफा देना पडा था और नये कानून भी बन गये थे ! ये सब इलेक्ट्रॉनिक मेडीया जब नही था तब कि बात है । लेकिन जब भाजपा का शासन महाराष्ट्र मे स्थापित हु‌आ तो उसका रिमोट कंट्रोल जिनके हाथ मे था उन्होंने अण्णा को नौटंकी बताया । तेढे मुंह वाला गांधी इन शब्दों मे उनका जिक्र किया गया । 

अब वही भाजपा के समर्थक लोग इस बार अण्णाजी के मसीहा होने का ईमेल फॉर्वड कर रहे थे । अण्णाजी और केजरीवाल ने एक साथ आंदोलन मे हिस्सा लिया । सरकार को झुकाया और सरकारी बिल को जोकपाल भी कह डाला । लेकिन.....  अब केजरीवाल कहने लगे कि हमे व्यवस्था मे उतरना होगा । जब यह बात उन्होंने कही तो कोअर कमिटी की मिटींग हुई जिसके बारे मे एक चुप्पी सी है ।  मीटिंग के बाद अण्णाजी नाराज हुए थे और उन्होंने केजरीवाल से सभी रिश्तें तोड दिये । यह अब इतिहास बन गया है ।

समय समय की बात है । पिछले महीने जब लोकपाल बिल संसद मे पारित हो रहा था, तब अण्णा और केजरीवाल के अलग अलग बयाण आ रहे थे । अण्णा कह रहे थे बिल अच्छा है, तो केजरीवाल कह रहे थे कि ये तो जोकपाल है । जब अण्णा रामलीला पे केजरीवाल के साथ थे तो इसी बिल पर समझौता करने के लिये तैयार नही थे और बिल को जोकपाल बता रहे थे । आज जब अण्णा ने बिल का स्वागत किया तो केजरीवाल ने कहा कि को‌ई अण्णाजी के कान फूंक रहा है । अण्णाजी के कान फूंके जा सकते है, अण्णा हल्के कान के है यह साक्षात्कार केजरीवाल को कैसे हु‌आ ? क्या  अण्णाजी का इस्तमाल किया जा सकता है ,  यही केजरीवाल कहना चाहते थे ?

अण्णाजी के बदलते हु‌ए रंग और तेवर देखकर हमे तो कुछ समझ नही आ रहा । ना ही राजनीती को गंदा कहनेवाले केजरीवाल की बाते समझ मे आ रही है । समर्थन नही लेंगे, ले लिया । सरकार नही बनायेंगे, बना दी । सरकारी मकान नही लेंगे, ले लिया !

तो बात है उन ईमेल फॊर्वर्ड वालों कि.. ये लोग अब केजरीवाल के खिलाफ क्यूं प्रचार कर रहे है ? अब ये लोग आप के खिलाफ क्यूं प्रचार कर रहे है ? हमे फिरसे इतिहास मे झांकना होगा ।

अडवाणीजी ने १९९९ और २००४ के चुनाव के ठीक पहले दो बार एक अहम बात अपने चिंतन मे कही थी ।  इस देश मे द्विपक्षीय लोकशाही होनी चाहीये । जिस तरह की डेमोक्रसी यू‌एस‌ए मे है, भारत मे होनी चाहीये । उन्होंने ये भी कहा कि भारत को अध्यक्षीय लोकशाही कि जरूरत है । यह एक स्वतंत्र डिबेट का मामला है । लेकिन इसी चिंतन के दौरान उन्होंने यह तक कह डाला कि कॉंग्रेस और भाजपा एक दूसरे के लिये परस्परविरोधी किंतु पूरक दल है । क्या मतलब है इसका ? विरोधी है किंतु एक दूसरे के उपयोगी दल कैसे हो सकते  है ?

अडवाणीजी ने एक ऐसी बात कही जो इस देश के राजनीती को जाननेवालें तुरंत समझ गये । दर असल कॉंग्रेस और भाजपा दोनों भी ब्राह्मणवादी विचारों के दल है । लेकिन कॉंग्रेस ने अपना रूप सेक्युलर रखा है इसलिये लोग कॉंग्रेस के साथ हो गये । बडी ही आसानी से ब्राह्मणों का राज हो गया । लेकिन कॉंग्रेस ने आजादी के बाद टाटा, बिडला,मित्तल, जिंदाल, सिंघानिया, मेहता, बजाज इन्ही लोगों के लिये काम किया । ऐसा नही है कि बाकियों के लिये कुछ नही किया, थोडा बहुत जरूर किया । लेकिन जो थोडा किया उसका प्रचार जोर शोर से किया, और जो जोर शोर से किया उसका प्रचार कभी नही किया । हालांकि जिसका प्रचार नही किया जाता वह उसका असली अजेण्डा होता है । लेकिन यह अजेण्डा कभी जाहीर नही किया जाता था । तो यह बात छुपाने का क्या मतलब हो सकता है ?

इस बात का सीधा मतलब है कि जो असली अजेण्डा है, वह कॉंग्रेस के वोटरों के पक्ष मे नही है । इसलिये यह अजेण्डा खुले आम कहने की बात नही थी । वही दूसरी और जिसका प्रचार किया गया वह उसका नकाब था ।   प्रचार किस बात का किया जा रहा था? दलित को आरक्षण, मुस्लीम का हिंदुत्ववादीयों से रक्षण ।

ये तो बुनियादी चीजे है । क्या इनका प्रचार करने कि  क्या जरूरत है?

क्यूं कि, इनका प्रचार करनेसे दूसरे जो ओबीसी के लोग थे उन्हे हिंदुत्व के नाम पर जनसंघ संघटीत कर सकता था । उनकी बढती संख्या दलित, मुस्लीम और अन्य समूहों के चिंता का विषय होता था । इस चिंता का समाधान सिर्फ कॉंग्रेस है यह एक भ्रम कॉंग्रेसद्वारा प्रचारीत किया गया, वही दूसरी ओर कॉंग्रेस अल्पसंख्यकों और नीचली जातीयों का ही काम कर रही है यह प्रचार करके उन्हें हिंदू बनाने का काम हिंदुत्ववादी करते रहे । जब हिंदुत्ववादी सत्ता मे आये, तो उन्होंने प्रचार जोर शोर से राममंदीर का किय़ा, किंतु काम कुछ नही किया । उन्होंन भी जिंदाल, मित्तल, टाटा, बिडला, मेहता, अंबानी, थडानी इन्हींका काम किया जिसका प्रचार बिल्कुल ही नही किया । जिसबात का प्रचार नही किया जाता वह असली अजेण्डा होता है, ये बात अगर सच है तो कॉंग्रेस का भी अजेण्डा यही रहा है । अगर अजेण्डा एकही है तो कॉंग्रेस और भाजपा अलग कैसे ?

जब कॉंग्रेस की ए धोखादडी लोगों कि समझ मे आयी तो प्रादेशिक एवं धार्मिक ताकतों का उदय हु‌आ जो कॉंग्रेस से किनारा कर प्रवाह मे आना चाहती थी । उन्हे अहसास हु‌आ कि सत्ता मे हमारी भागीदारीही नही है । इसीलिये मुस्लीम संगठन, दलित संगठन, ओबीसी संगठन कॉंग्रेस से अलग होकर काम करने लगे । बिहार मे लालू, उप्र मे सपा-बसपा, महाराष्ट्र मे शरद पवार, हरियाणा मे लोकदल इन पार्टीयों का उदय इसी वजह से हु‌आ जिसके चलते केंद्र मे अस्थिरता पैदा हु‌ई । अस्थिरता के चलते केंद्र की सरकार मजबूर हो गयी । यह तो मुस्लीम, दलित, ओबीसी गुटों के लिये अच्छी सिचु‌एशन थी । लेकिन फिर कॉंग्रेस ने सेक्युलर कार्ड खेला और बीजेपी ने हिंदुत्व का । दंगे हु‌ए, लोग मारे गये मस्जीद गिरायी गयी, बम धमाके हु‌ए जिसके चलते सामाजिक ध्रुवीकरण तेज हो गया । यह ध्रुवीकरण हिंदू और मुस्लीम के नाम पर हु‌आ जो ये दो पक्ष चाहते थे । अब केंद्र की सरकार चलाना सेक्युलर मजबुरी हो गयी । हमारा साथ नही दिया तो भाजपा आ जायेगी ये हौव्वा बनाया गया ।

इस घटना क्रम को देखा जाये तो कॉंग्रेस और भाजपा ये ब्राह्मणवादीयों की ए और बी टीम रही है । १९९१ के बाद देश मे हालात बदले । प्रायव्हेटायझेशन के बाद सामाजिक समीकरणों मे बदलाव हु‌ए । दुनिया एक ग्लोबल व्हिलेज बन गयी, जिसके चलते एक नयी जनरेशन जो भारतमे अब युवा के रूप मे उभरी थी उनकी सोच ग्लोबल बन चुकी थी । उनको ये दंगे कम्युनल पॉलिटिक्स बेवकुफी लगने लगा । जो दिलसे तो भाजपा या संघ के साथ थे लेकिन कम्युनल नही थे उन्हे अब नये पर्याय चाहीये थे । ग्लोबललायझेशन से अर्बनायझेशन हो गया, जिनकी प्राथमिकता अलग थी जो कॉंग्रेस के ट्रॅडीशनल पॉलिटीक्स से अलग थी । सच पूछीये तो सोनिया गांधी जैसे विदेशी महीला का हाथ मे कॉंग्रेस की डोर होनेसे ब्राह्मणवादीयों को कॉंग्रेस अपनी ए टीम नही लग रही थी । इसी लिये एक ऐसी पार्टी की उन्हे जरूरत पड रही थी जिसकी सोच नयी हो, लेकिन भाजपा की तरह हिंदुत्व की बात न करती हो ।  जनलोकपाल आंदोलन के जरीये पहले अण्णाजी के अनशन का फायदा उठाते हुए केजरीवाल को लॉंच किया गया । जब तक यह पार्टी बाल्यावस्था मे थी तो संघ स्वयंसेवकों ने उसे मदद की । अब पार्टी खडी हो गयी  तो अण्णाजी का भी काम हो गया , अब अण्णाजी को भी बाय बाय कहा गया !  अब संघ व्यवस्थापन ने केजरीवाल को ये नया संगठन खुद के बल पर चलाने का काम दिया जो संघ के रह चुके केजरीवाल ने बाखुबी निभाया । इअलिये जिन लोगोंने ईमेल फॉर्वर्ड और अन्य तरह से शुरू मे इस आंदोलन को मदद की, अब वह अपने रेग्युलर काम मे  याने मोदी के प्रचार मे जुट गये ! अब मोदी पर भी केजरीवाल का चेक बना रहेगा ! पहले की तरह मोदी अब भाजपा में डिक्टेटर नही रह सकते थे । 

अब इसके बाद कॉंग्रेस बनाम भाजपा यह खेल खेलने की को‌ई जरूरत नही रही । अब जो खेल होगा वह आप बनाम भाजपा होगा । अब ए टीम बदल गयी है । आप अगर ना भी जीते  तो भी भाजपा का फायदा है । क्युं कि अब पहले के आप के समर्थक अन कह रहे है कि आप कॉंग्रेस की ए टीम है और बीजेपी की दुश्मन है, इससे  सेक्युलर वोटों मे सेंध लग सकती है जिससे तिसरे पक्ष तथा कॉंग्रेस का नुकसान होगा और बीजेपी के वोट ना बढने पर भी वोट मॅनेजमेंट से उन्हे फायदा होगा, जो चार स्टेट्स मे होता हु‌आ नजर आया !

यही २०१४ की नीती है ! इसे कहते है चित भी मेरी पट भी मेरी !!

Thursday, January 2, 2014

ब्लॉगमागची भूमिका

मित्रांनो

डॉ देवयानी खोब्रागडे यांच्या अवमानप्रकरणात या ब्लॉगवर खूप आणि वारंवार लिखाण झालं. लोकांकडून विचारणा होऊ लागली कि डॉ देवयानी यांच्याबद्दलच्या बातम्यांसाठी समर्पित असा हा ब्लॉग आहे का ?

खरं सांगायचं तर तसं रूप आलं होतं. पण त्याची कारणं काय आहेत हे आपणा सर्वांना माहीतच आहेत. एखाद्या विषयाचा फोकस भलतीकडेच नेऊन त्य़ा प्रकरणातलं गांभीर्य कमी करून त्याला भलताच रंग देण्यात माध्यमं बदनाम आहेतच. पण या केस मधे त्यांनी ताळतंत्र सोडलं होतं. मोठ मोठ्या मथळ्यांखाली संपूर्ण गैसरमज करून देणा-या बातम्या द्यायच्या, मधेच एखादी खरी बातमी द्यायची पण त्यावर प्रतिक्रिया अशा द्यायच्या कि वाचकांना जे सांगायचं त्यात यशस्वी व्हायला हवं. 

पहिल्या दिवशी डॉ देवयानी यांना मिळालेली प्रसिद्धी हे कारण असावं का ? आपल्या माध्यमातून अशी प्रसिद्धी मिळाल्याचं लक्षात येताच बदनामीची मोहीम चालवल्यासारख्या बातम्या पेरल्या गेल्या. यात नुकसान देशाचंच झालं. यामागे सीआयए या गुप्तहेर संघटनेकडून मिळालेले पैसे हे कारण असल्याचंही आता स्पष्ट होत चाललेलं आहे. देशविघातक कारवायांसाठी कुठल्या संघटना कार्यरत असतात आणि त्यांचे पैसे घेऊन कोण काय काम करतं हे अजूनही पुरेसं समोर आलेलं नाही. ज्यांना हा देश नकोसा वाटतो असे लोक देश सोडून गेल्यानंतर भारताला शिव्या देणा-या प्रतिक्रिया देत असतात. या देशाप्रती असलेली त्यांची निष्ठा इथंच सिद्ध होते.

आम्ही वारंवार सांगून आता थकलो आहोत कि परदेश नीती मधे राजदूत आणि त्यांच्या बरोबरीच्या इतर स्टाफला, दूतावासातील व वकिलातींमधील अधिकारी व कर्माचा-यांना कसं वागवायचे याचे संकेत ठरलेले असतात. दोन देशातले संबंध सुरळीत रहावेत, वृद्धींगत व्हावेत यासाठी त्यांची नेमणूक झालेली असते. ते काही स्वत:च्या मर्जीने माहीती तंत्रज्ञान क्षेत्रात नोकरी करण्यासाठी व्हिसा मिळवून गेलेले कर्मचारी नव्हेत. त्यांना मिळणारी वागणूक ही देशाला मिळालेली वागणूक समजली जाते म्हणूनच आंतरराष्ट्रीय कायदे व दोन देशांतील संबंधानुसार अशा प्रकरणांमधे भूमिका घेतली जाते.

भारत आणि अमेरीका यांच्यात चलन विनिमयाच्या दरात फरक आहेच. म्हणूनच भारतीय रूपयात रु. ३०,०००/ इतका पगार मेडला मिळणे हे भारतात समाधानकारक पेक्षा ही वरच्या पातळीवर झालं. बीई झालेले तरुण सुरुवातीला १५,००० रु च्या नोकरीवर काम करतात. अनेक होमिओपॅथिक डॉक्टर्स तर निवासी डॉक्टर म्हणून अतिशय कमी वेतनावर काम करतात. शिवाय काही ठिकाणी प्रत्येक चुकीसाठी पैसेही कापून घेतले जातात.  भारतात वेतन इतकंच दिलं जातं. त्या पार्श्वभूमीवर संगीता रिचर्डला ३०००० रु म्हणजे घसघशीत पगार ठरला होता. शिवाय राहण्याची, जेवण्याची व इतर खर्चाची सोय करणार असल्याने रक्कम शिल्लक पडणार होती.

क्षणभरासाठी तिला अमेरीकेत गेल्यावर याव्यतिरिक्त डॉलर्स दिले नाहीत असं समजलं तरी हा सौदा चांगलाच होता. महाराष्ट्रात आलेले बिहारी २०० रु रोजंदारीवर काम करून राहतात. त्यांचं राहणं, जेवण आणि येणंजाणं हे त्यांचं तेच पाहतात. त्याचे पैसे कुणी देत नाही.

घाना, नायजेरीया अशा गरीब देशांतल्या वकिलातींना तर सुरक्षा रक्षक आणि इतर कर्मचारी अमेरीकेच्या दराने ठेवणं कसं परवडणार ?हा कायदाच मुळात त्या वकिलातीच्या आणि त्या देशाच्या दोन नागरीकांमधल्या व्यवहारांवर अतिक्रमण करणारा आहे. कायद्याचा कीसच काढायचा म्हटला तर संगीताला भारतीय अधिका-याच्या कामासाठी शासकीय पासपोर्टवरच आणलंय. मग त्या दोघांमधल्या वादाचं न्यायीक क्षेत्र हे दिल्लीचं उच्च न्यायालय आहे. अमेरीकन न्यायालय नव्हे.

ज्या कायद्याच्या आधारे कारवाई केली गेली, त्यावर भारताने कधीच सहमती दर्शवलेली नाही किंवा आक्षेपही नोंदवलेला नाही. हा राजकारणाचा भाग असू शकेल. पण म्हणून भारताच्या अधिका-यांविरुद्ध, माजी राशःट्रपती, संरक्षणमंत्री अशा रानजैतिक संरक्षण असलेल्या अतिमहत्वाच्या व्यक्तींचाही अवमान होईल असं वागायचं ?

भारताने त्या वेळी नरम भूमिका घेण्याचं कारण म्हणजे अमेरीका नुकत्याच झालेल्या हल्ल्यातून सावरली नसल्याने हा इश्श्यू तापवण्याची ती योग्य वेळ नव्हती. अमेरीकेला फक्त स्वार्थ कळतो. त्यांना त्या वेळी भारताचा निषेधही समजला नसता आणि दहशतवादी कारवायांमधे गुंतलेल्या व भारताला हव्या असलेल्या अतिरेक्यांची जी माहीती अमेरीका भारताला देत होती त्यावर परिणाम झाला असता.

तरीदेखील अमेरीकेचं वागणं समर्थनीय नव्हतंच. त्या वेळी, पहिली वेळ, दुसरी वेळ म्हणून भारताने काणाडोळा केला. पण प्रभू दयाळ यांच्या नोकराणीला पळवून नेऊन वकिलांच्या टोळल्याकडून ब्लॅकमेल केलं गेलं, कारवाईची भीती दाखवली गेली आणि तडजोडीला तयार झाल्यावर माफी मागून सोडून देण्यात आलं. त्यांच्या नोकराणीने तर लैंगिक शोषणाचाही आरोप ठेवला होता जो नंतर मागे घेतला.  त्यांच्या आधीच्या नीना मल्होत्रांना ही अशाच प्रकाराला सामोरं जावं लागलं. त्यांनी माफी मागितली नाही असं कळतं. त्यांच्याकडून दिल्ली उच्च न्यायालयात केस लावली गेली आणि दंडाची रक्कम भरण्यास नकार देण्यात आला. आणि आता देवयानीचं प्रकरण.!

या वेळी मात्र मर्यादा ओलांडल्या गेल्या. परराष्ट्रखात्याचा प्रवक्ता म्हणाला " जर दोन देशात चांगले संबंध आहे हे समजलं जात असेल तर अशी कारवाई न करता अतिशय गुप्तपणे, सापळा लावून हे धंदे करण्यामागे कुठला संदेश द्यायचा होता असं समजावं ?"

हा प्रश्न कळीचा प्रश्न आहे. अमेरीकेने रशियाच्या ४९ अधिका-यांना ते भ्रष्टाचाराच्या केसमधे सामील असतानाही सोडून दिलं हे आपण भारतविरोधी भारतीय या लेखात पाहीलंच आहे. अशी अनेक उदाहरणं आहेत. म्हणजेच ज्या कायद्याचा बाऊ केला जातो आहे तो काही तितकासा पाळला जात नाही हे दिसून येतं. हा इश्यू तिथेच संपला असता. प्रभू दयाळ, नीना मल्होत्रा आणि देवयानी यांचा हुद्दा एकच असताना, नेमणुकीचं ठिकाण एकच असताना आणि कारवाई करणारा अधिकारी एकच असताना रस्त्यात बेड्या ठोकून कपडे उतरवून अंगझडती आणि त्याहीपेक्षा अवमान होईल अशा प्रकारे झडती आणि शेवटी वेश्या आणि ड्रग्जचे व्यसनी यांच्या जेलमधे ठेवण्याची गरज होती का ?

ही केस अशा प्रकारे पहायला हवी असताना देवयानीनेच कसं भारताचं नाक कापल, अमेरीकेचे कायदे काय आहेत यावर च-हाट केलं गेलं. अगदी स्पष्ट आहे, अमेरीकेची बाजू घेण्यामागं वरील सर्व मुद्दे नजरेआड करण्याचं कारण म्हणजे देवयानीद्वेष ! हे एकमेव उत्तर आहे. हा द्वेष का आहे हे आपण जाणतोच.

ज्यांच्या बाबतीत असा द्वेष लागू होत नाही त्यांच्याकडून समतोल मतं माडली गेली. पण अशा मतांना मेडीयाने मुद्दामच झाकून टाकलं.

मेडीयाची ही वागणूक हा अनेकांना पेटून उठण्यासाठी मुद्दा बनला. आज देवयानीच्या बाबतीत जे घडतंय ते आपल्याही बाबतीत घडेल हे सर्वांच्या लक्षात येत होतं.  कुणालाही  अतिरेकी ठरवता येतं हे ही लक्षात आलं होतं.  खैरलांजी हत्याकांडाच्या चौकशीसाठी निघालेल्या मोर्चात नक्षलवादी होते असा शोध लागला. तर काहींनी भोतमांगे कुटुंबियांचीच चूक असेल अशा प्रकारच्या प्रसंगाचं गांभीर्य कमी करणा-या बातम्या दिल्या.

मेडीयाचा हा खोटेपणा देवयानीच्या निमित्ताने सहजच चव्हाट्यावर आणता येणं शक्य झालं. या कामी दैनिक महानगरचे संपादक सुनील खोब्रागडे यांनी अपार कष्ट केले. अनेक महत्वाचे इन्पुटस दिले.  आमची साधनं अपुरी आहेत, पण आहे त्यातच सुरूवात तर केली पाहीजे. सोशल मेडीयाच्या माध्यमातून अण्णांचं आंदोलन लॉंच केलं गेलं. एका पार्टीचा उदय झाला. आपल्याकडे टीव्ही सारखं प्रभावी माध्यम नाही हे खरंच. पण डॉ देवयानीच्या प्रकरणात ज्याप्रमाणे डू ऑर डाय या भावनेनं आपण माहीती शेअर केली तर आपण एकमेकांना जोडले जाऊ शकतो. मागच्या पिढीकडे हे साधन नव्हतं. सुदैवाने आता मेडीयाने कितीही खोडसाळ बातम्या दिल्या तरी त्या खोडून कशा काढायच्या हे आपल्याला माहीत झालंच आहे.

डॉ देवयानी अवमानपरकरणी घडलेल्या घटनांचे पडसाद आणि विश्लेषण चालूच राहील, त्यानिमित्ताने आपण नवं काय शिकलो हे महत्वाचं. या ब्लॉगच्या मागे हेच उद्दीष्ट आहे. मनात आलं आणि ब्लॉगवर लिहीलं अशा प्रकारे ब्लॉग रोजच्या रोज हलता ठेवण्यात आम्हाला रस नाही. त्याचा घटनांशी, आंदोलनाशी आणि जाणिवांशी संबंध असेल तरच  त्या लिखाणाला अर्थ आहे.    म्हणूनच जेव्हां जेव्हां अशा घटना लक्षात येतील त्या वेळी त्याचा पाठपुरावा करण्याबरोबरच त्यातून नवं काय शिकता आलं हे पाहण्याकडे या ब्लॉगची भूमिका असेल.